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Wednesday, August 2, 2017

जीवन में काल बन सकता है काल सर्प योग By: आचार्य रामजी मिश्र Published: Wednesday, May 8, 2013, 10:53 [IST] Subscribe to Oneindia Hindi क्‍या आप नौकरी को लेकर बेहद परेशान हैं? क्‍या आप कड़ी मेहनत करते हैं, फिर भी परिणाम अच्‍छे नहीं मिलते? क्‍या आप संतान को लेकर परेशान हैं, या आपको संतान प्राप्ति नहीं हो रही है? यदि ऐसा है, तो अपनी कुंडली खुद देखें, कहीं उसमें काल सर्प योग तो नहीं? अगर है, तो निश्चित तौर पर आप किसी न किसी परेशानी से जरूर जूझते रहेंगे। काल सर्प योग महज कुछ ग्रहों का योग है, जो कुडली में बनता है। नवग्रहों में राहु और केतु दोनों ही छाया ग्रह हैं। ज्‍योतिष की दृष्टि से इनके प्रभाव काफी कम होते हैं। राहु के जन्‍म के नक्षत्र के देवता यम यानी काल हैं और केतु के जन्‍म नक्षत्र आश्‍लेषा के देवता सर्प हैं। राहु के गुण और अवगुण शनि की तरह ही होते हैं। यही कारण है कि यह शनि ग्रह के जैसे ही प्रभाव डालता है। Related Videos योग ने दूर किया सिर दर्द...तस्वीरें दे रही हैं राहत की मिसाल01:10 योग ने दूर किया सिर दर्द...तस्वीरें दे रही हैं राहत की मिसाल अब तक नाराज़ है योगी, विश्व पर्यावरण दिवस के कार्यक्रम में स्वाति सिंह को किया नज़रअंदाज़02:17 अब तक नाराज़ है योगी, विश्व पर्यावरण दिवस के कार्यक्रम में स्वाति सिंह को किया नज़रअंदाज़ ऐसे करें भगवान् विष्णु की पूजा, होंगी सभी मनोकामनाएँ पूरी02:28 ऐसे करें भगवान् विष्णु की पूजा, होंगी सभी मनोकामनाएँ पूरी इन्‍हीं दोनों ग्रहों के स्‍थान काल सर्प योग बनाते हैं, जिस कारण संतान अवरोध, घर में रोज-रोज कलह, शारीरिक विकलांगता, मानसिक दुर्बलता, नौकरी में परेशानी आदि बनी रहती है। जाने अंजाने में इस दौरान अशुभ कामों के चलते इनके फल काफी कष्‍ट दायक हो जाते हैं। राहु के देवता काल (मृत्‍यु) हैं, इसलिये राहु की शांति के लिये कालसर्प शांति आवश्‍यक है। असल में जब सभी ग्रह राहु और केतु के बीच में विचरण करते हैं, तब उस योग को काल सर्प योग कहा जाता है। व्‍यक्ति के भाग्‍य का निर्माण करने में राहु और केतु का महत्‍वपूर्ण योगदान रहता है। मेष से लेकर बारह अनंत कालसर्प बनेंगे। राहु सभी राशियों में लगभग 18 वर्षो में अपना गोचर पूर्ण कर लेता है। इस प्रकार 18 वर्षो में 12 प्रकार के 12 राशियों से अलग-2 कालसर्प बनेंगे। ग्रहों के गोचर के अनुसार एक ऐसी स्थिति भी बनती है, जब सभी ग्रह राहु-केतु के ओर होते है और दूसरी स्थिति में दूसरी तरफ होते है। इस प्रकार अनंत कालसर्प योग 12 गुणे 12 गुणे 2 योग 288 हुये। इसी प्रकार अन्य कालसर्प योग 288 प्रकार के ही होगें और पूरी गणना करने पर कालसर्प योगों की संख्या 288 गुणे 12 योग यानि 3456 होगी। यहां पर हम सिर्फ 12 प्रकार के कालसर्प योगों को क्रमानुसार बता रहें है। 1- अनंत कालसर्प योग। 2- कुलिक कालसर्प योग। 3- वासुकि कालसर्प योग। 4- शंखपाल कालसर्प योग। 5- पद्म कालसर्प योग। 6- महापद्म कालसर्प योग। 7- तक्षक कालसर्प योग। 8- कर्कोटक कालसर्प योग। 9- शंखनाद कालसर्प योग। 10-पातक कालसर्प योग। 11- विषाक्त कालसर्प योग। 12- शेषनाग कालसर्प योग। यदि आप जानना चाहते हैं कि आपकी कुंडली में काल सर्प योग है या नहीं। अगर है तो कौन सा है, तो एक कागज पर अपनी कुंडली बनाकर रख लीजिये और नीचे तस्‍वीरों से उनका मिलान करिये- अनंत काल सर्प योग अनंत काल सर्प योग यदि जातक के जन्‍मांग के प्रथम भाव में राहु और सप्‍तम भाव में केतु हो तो अनंत काल सर्प योग होता हे। इसकी वजह से जातक के घर में कलह होती रहती है। परिवार वालों या मित्रों से धोखा मिलने की आशंका हमेशा बनी रहती है। मानसिक रूप से व्‍यक्ति परेशान रहता है, हालांकि ऐसे लोग सिर्फ अपने मन की ही करते हैं। कुलिक काल सर्प योग कुलिक काल सर्प योग यदि जातक के जन्‍मांग के द्वितीय भाव में राहु और अष्‍टम भाव में केतु हो तो यह कुलिक काल सर्प योग होता है। इस वजह से जातक गुप्‍त रोग से जूझता रहता है। इनके शत्रु भी अधिक होते हैं परिवार में परेशानी रहती है और वाणी में कटुता रहती है। वासुकि काल सर्प योग INDvSL: दूसरे टेस्ट में ओपनिंग करेंगे केएल राहुल, कोहली ने किया कन्फर्म रिसॉर्ट में छापा: कांग्रेस विधायक ने कहा- हम यहां पार्टी करने नहीं आए, आस पास घूम रहे बंदूकधारी जन्माष्टमी 2017: पूजा करने का सही मुहूर्त एवं समय Featured Posts वासुकि काल सर्प योग यदि जातक के जन्‍मांग में राहु तृतीय और केतु भाग्‍य भाव यानि 9वें भाव में हो तो वासुकि काल सर्प योग होता है। ऐसे लोगों को भाईयों से कभी सहयोग नहीं मिलता। ऐसे लोगों का स्‍वभाव चिड़चिड़ा होता है। ये लोग कितना भी कष्‍ट क्‍यों न आ जाये, किसी से कहते नहीं। शंखपाल काल सर्प योग शंखपाल काल सर्प योग यदि जातक के जन्‍मांग में मातृ यानि चतुर्थ स्‍थान पर राहु और पितृ यानि 9वें भाव में केतु दोनों हों तो शंखपाल काल सर्प योग माना जाता है। ऐसे लोगों का माता-पिता से हमेशा झगड़ा होता रहता है और परिवार में कलह बनी रहती है। ऐसे लोगों को दोस्‍तों से भी नहीं बनती है। पद्म काल सर्प योग INDvSL: दूसरे टेस्ट में ओपनिंग करेंगे केएल राहुल, कोहली ने किया कन्फर्म रिसॉर्ट में छापा: कांग्रेस विधायक ने कहा- हम यहां पार्टी करने नहीं आए, आस पास घूम रहे बंदूकधारी जन्माष्टमी 2017: पूजा करने का सही मुहूर्त एवं समय Featured Posts पद्म काल सर्प योग जिन लोगों की कुंडली में पांचवें सथान पर राहु और ग्‍यारहवें भाव में केतु हो तो उस स्थिति में पद्म काल सर्प योग होता है। ऐसे लोग बुद्धिमान होते हैं, जमकर मेहनत करते हैं, लोगों से उनका व्‍यवहार काफी अच्‍दा होता है और प्रतिष्ठित पदों तक पहुंचते हैं। लेकिन अनावश्‍यक चीजों को लेकर उनके मान-सम्‍मान को हानि पहुंचना आम बात होती है। एक के बाद एक परेशानियां बनी रहती हैं। इनका पहला पुत्र कष्‍टकारी होता है। शेषनाग काल सर्प योग शेषनाग काल सर्प योग यदि किसी की कुंडली के बारहवें भाव में राहु और छठे भाव में केतु के अंतर्गत सभी ग्रह विद्यमान हों तो शेषनाग काल सर्प योग होता है। ऐसे लोगों के खिलाफ लोग तंत्र-मंत्र का इस्‍तेमाल ज्‍यादा करते हैं। इन्‍हें मानसिक रोग लगने की आशंका ज्‍यादा रहती है। यदि राहु के साथ मंगल है तो इनके सारे शत्रु परस्‍त हो जाते हैं। यानी इनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाता है। विदेश यात्रा से लाभ मिलते हैं, लेकिन साझेदारी के व्‍यापार में हानि उठानी पड़ती है। विषाक्‍त काल सर्प योग विषाक्‍त काल सर्प योग यदि व्‍यक्ति की कुंडली के ग्‍यारहवें भाव में राहु और पांचवें भाव में केतु सभी ग्रहों को समेटे हुए हो तो विषाक्‍त काल सर्प योग होता है। ऐसे लोग अच्‍छी विद्या हासिल करते हैं। इन्‍हें पुत्र की प्राप्ति होती है। ये उदारवादी होते हैं, लेकिन कभी-कभी पारिवारिक कलह का सामना करना पड़ता है। ये कभी भी किसी पर मेहरबान हो सकते हैं। पातक काल सर्प योग पातक काल सर्प योग पातक काल सर्प योग तब बनता है, जब कुंडली के 10वें भाव में राहु और चतुर्थ भाव में केतु हो। ऐसे लोगों के वैवाहिक जीवन में तनाव बना रहता है। पै‍तृक संपत्ति जल्‍दी नहीं मिल पाती है। ऐसे लोग नौकरी या व्‍यापार के लिये हमेशा परेशान रहते हैं। कर्ज भी बहुत जल्‍दी चढ़ जाता है। हृदय और सांस के रोग की परेशानी बनी रहती है। शंखनाद काल सर्प योग शंखनाद काल सर्प योग यदि कुंडली में सातों ग्रहों को लेकर राहु भाग्‍य यानि 4 स्‍थान पर हो और केतु 10 भाव में हो तो यह शंखनाद काल सर्प योग होता है। इसके अंतर्गत भाग्‍य अच्‍छा होते हुए और कड़ी मेहनत के बावजूद मनमाफिक फल नहीं मिलते। ऐसे लोगों के शत्रु गुप्‍त होते हैं। इनमें सहने की शक्ति बहुत होती है और लोग इनका नाजायज फायदा उठाने की कोशिश में रहते हैं। कार्कोटक काल सर्प योग कार्कोटक काल सर्प योग कार्कोटक काल सर्प योग उस स्थिति में बनता है जब कुंडली में 8वें भाव में राहु और द्वितीय भाव में केतु हो। ये दोनों मिलकर सभी ग्रहों को निगलने के प्रयास करते रहते हैं। ऐसे व्‍यक्ति हर छोटी-छोटी चीज के लिये छटपटाते रहते हैं। इन्‍हें खाली बैठना पसंद नहीं होता। जीवन पर्यंत पैसे की चिंता बनी रहती है। ये अपनी इंद्रियों पर काबू नहीं रख पाते हैं और बहुत जल्‍दी शराब आदि का नशा लग जाता है। महापद्म काल सर्प योग महापद्म काल सर्प योग महापद्म काल सर्प योग उ‍स स्थिति में बनता है, जब कुंडली के रोग और शत्रु यानि छठे भाव में राहु और 12वें भाव में केतु सहित सातों ग्रह हों। ऐसे लोग जीवन भर परेशान रहते हैं। मानसिक तनाव बना रहता है। इनके हर काम में कोई न कोई अढ़चन जरूर आती है। तक्षक काल सर्प योग तक्षक काल सर्प योग यदि जन्‍मांग के 7वें भाव में राहु और लग्‍नस्‍थ यानि प्रथम भाव में केतु विद्यमान तक्षक काल सर्प योग बनता है। ऐसे जातक जीवन भर घर परिवार, मान सम्‍मान, धन आदि के लिये जीवन भर संघर्ष करते रहते हैं। ऐसे लोग जिन पर विश्‍वास करते हैं, उनसे धोखा निश्चित तौर पर उठाना पड़ता है। लेकिन यह अपनी परेशानी किसी से कह नहीं पाते हैं।

पितृ दोष क्या है (what is Pitra dosh)

वस्तुतः मृत्यु दो प्रकार की होती है 1. सामान्य मृत्यु 2. अकाल मृत्यु। जब व्यक्ति बिना किसी रोग-दुःख के, सुखी जीवन व्यतीत करते हुए, अपने परिवार के मध्य इस संसार को छोड़ कर चला जाता है तो हम उसे सामान्य मृत्यु कहतें हैं। परन्तु जिसकी मृत्यु असमय होती है यथा — सड़क दुर्घटना, लड़ाई-झगड़े के कारण,  नदी में डूब जाने से,  जहर खाकर,  फांसी लगाकर इत्यादि अन्य अप्राकृतिक कारणों से होती है तो हम उसे अकाल मृत्यु के श्रेणी में रखते है। घर-परिवार में अकाल मृत्यु का होना पितृ दोष की ओर संकेत करता है। ऋषि मुनियों के अनुसार अकाल मृत्यु पितृ दोष के कारण ही होता है।
कहा जाता है कि मोहवश या अकाल मृ्त्यु को प्राप्त होने के कारण, जीवात्मा को सद्गति नहीं मिलती अथवा मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती बल्कि वे मृ्त्यु-लोक में भटकते रहते है। ये पूर्वज स्वयं दुखी होने के कारण पितृ् योनि से मुक्त होना चाहते है, परन्तु जब आने वाली पीढ़ी उन्हें भूला देता है, तो पितृ दोष उत्पन्न होता है। वस्तुतः यही पितृ दोष है।

पितृ दोष से होने वाले कष्ट

अपने जीवन यात्रा में जातक को अनेक प्रकार के कष्ट भोगने पड़ते है जिनमें पितृ दोष से होने वाले कष्ट (Trouble from pitra dosh) भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। सम्पूर्ण मानव जाति त्रिविध (आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक) कष्ट भोगता है उनमें मृत पूर्वजों की अतृप्ति के कारण वंशजों को जो कष्ट होता है वह आध्यात्मिक कारणों से होने वाले कष्टो में से एक है।
 
पितृ दोष से हमारे सांसारिक जीवन में तथा आध्यात्मिक साधना  में अनेक प्रकार के बाधाएं उत्पन्न होती हैं। कभी-कभी तो अचानक ही पूरा परिवार समस्याओं से ग्रसित हो जाता है। समस्याओं से मुक्ति के अनेक उपाय करने के बावजूद भी राहत नहीं मिलती है। सामान्यतः हमें यह नहीं पता होता है की पितृ दोष से मनुष्यों को अपने दैनिक जीवन में किस-किस प्रकार के कष्ट भोगने पड़ते हैं। आइये आज हम आपको पितृदोष से आने वाले कष्टों से परिचय कराते हैं।

जाने ! क्या है पितृ दोष से होने वाले कष्ट (what is the trouble from pitra dosh)

  1. विवाह का न हो पाना अथवा विवाह होने के बाद वैवाहिक जीवन में क्लेश।
  2. परिश्रम करने के बाद भी सफलता न मिलना या सफलता में संदेह होना।
  3. व्यवसाय में हानि होना या उतार-चढ़ाव अधिक होना।
  4. नौकरी लगने में देर होना अथवा लगने के बाद छूट जाना।
  5. शादी के बाद गर्भधारण में समस्या, गर्भपात होना तथा संतान से कष्ट होना। मानसिक रूप से विक्षिप्त विकलांग रूप में जन्म लेना।
  6. बच्चों की अकाल मृत्यु अथवा घर में एक-एक करके अनेक मौत होना।
  7. सामाजिक तथा पारिवारिक संस्कारों के विरुद्ध कार्य करना।
पुनःयह सोचने के लिए बाध्य होना पड़ता है कि क्या उपर्युक्त सभी समस्याओं का केवल एक मात्र कारण पितृदोष ही है क्या ? मेरे अनुसार केवल पितृदोष एक मात्र कारण नहीं हो सकता हाँ यदि प्रारब्ध भी उपर्युक्त फल को प्रतिष्ठित करता है तो अवश्य ही कहा जा सकता है की पितृदोष के कारण ऐसा हो रहा है।
पितृ दोष के कारण ही ऐसा हो रहा है अथवा नहीं इसके निर्धारण के लिए निम्न प्रकार से भी विचार कर लेना चाहिए। क्या कष्ट निवारणार्थ सभी प्रयास विफल हो गए। क्या डॉक्टर के इलाज के बावजूद बिमारी ठीक नहीं हो रही है या बिमारी का पता नहीं चल रहा है इत्यादि। यदि घर के सभी सदस्य किसी न किसी समस्या से एक ही साथ परेशान है। इसी प्रकार अन्य सभी समस्याओं पर प्रथमतः स्वयं विचार कर लेना चाहिए तत्पश्चात किसी ज्योतिर्विद अथवा आध्यात्मिक गुरु से परामर्श लेना चाहिए।

अकस्मात मृत्यु के योग एवं शांति के उपाय  


प्रश्न: अकस्मात मृत्यु के कौन-कौन से योग हैं? विस्तार से इनकी व्याख्या करें तथा ऐसी मृत्यु से बचाव के लिए किस प्रकार के उपाय सार्थक हो सकते हैं? मानव शरीर में आत्मबल, बुद्धिबल, मनोबल, शारीरिक बल कार्य करते हैं। चन्द्र के क्षीण होने से मनुष्य का मनोबल कमजोर हो जाता है, विवेक काम नहीं करता और अनुचित अपघात पाप कर्म कर बैठता है। अमावस्या व एकादशी के बीच तथा पूर्णिमा के आस-पास चन्द्र कलायें क्षीण व बढ़ती हैं इसलिये 60 : ये घटनायें इस समय में होती हैं। तमोगुणी मंगल का अधिकार सिर, एक्सीडेन्ट, आगजनी, हिंसक घटनाओं पर होता है तो शनि का आधिपत्य मृत्यु, फांसी व वात सम्बन्धी रोगों पर होता है। छाया ग्रह राहु-केतु का प्रभाव आकस्मिक घटनाओं तथा पैंर, तलवों पर विशेष रहता है। ग्रहों के दूषित प्रभाव से अल्पायु, दुर्घटना, आत्महत्या, आकस्मिक घटनाओं का जन्म होता है। आकस्मिक मृत्यु के स्थान का ज्ञान 1- लग्न की महादशा हो और अन्तर्दशा लग्न के शत्रु ग्रह की हो तो मनुष्य की अकस्मात मृत्यु होती है। 2- छठे स्थान के स्वामी का सम्बन्ध मंगल से हो तो अकस्मात आपरेशन से मृत्यु हो। 3- लग्न से तृतीय स्थान में या कारक ग्रह से तृतीय स्थान में सूर्य हो तो राज्य के कारण मृत्यु हो। 4- यदि शनि चर व चर राशि के नवांश में हो तो दूर देश में मृत्यु हो। 5- अष्टम में स्थिर राशि हो उस राशि का स्वामी स्थिर राशि में हो तो गृह स्थान में जातक की मृत्यु होती है। 6- द्विस्वभाव राशि अष्टम स्थान मं हो तथा उसका स्वामी भी द्विस्वभाव राशिगत हो तो पथ (रास्ते) में मृत्यु हो। 7- तीन ग्रह एक राशि में बैठे हों तो जातक सहस्र पद से युक्त पवित्र स्थान गंगा के समीप मरता है। 8- लग्न से 22 वें द्रेष्काण का स्वामी या अष्टमभाव का स्वामी नवम भाव में चन्द्र हो तो काशीतीर्थ बुध$शुक्र हो तो द्वारिका में मृत्यु हो। 9- अष्टम भाव में गुरु चाहे किसी राशि में हो व्यक्ति की मृत्यु बुरी हालत में होती है। मृत्यु फांसी के द्वारा 1- द्वितीयेश और अष्टमेश राहु व केतु के साथ 6, 8, 12 वें भाव में हो। सारे ग्रह मेष, वृष, मिथुन राशि में हो। 2- चतुर्थ स्थान में शनि हो दशम भाव में क्षीण चन्द्रमा के साथ मंगल शनि बैठे हों 3- अष्टम भाव बुध और शनि स्थित हो तो फांसी से मृत्यु हो। 4- क्षीण चन्द्रमा पाप ग्रह के साथ 9, 5, 11 वे भाव में हो। 5- शनि लग्न में हो और उस पर शुभ ग्रह की दृष्टि न हो तथा सूर्य, राहु क्षीण चन्द्रमा युत हों तो जातक की गोली या छुरे से मृत्यु अथवा हत्या हो। 6- नवमांश लग्न में सप्तमेश राहु, केतु से युत 6, 8, 12 वें भाव मं स्थित हों तो आत्महत्या करता है। 7- चैथे व दसवें या त्रिकोण भाव में अशुभ ग्रह हो या अष्टमेश लग्न में मंगल से युत हो तो फांसी से मृत्यु होती है 8- क्षीण चन्द्रमा पाप ग्रह के साथ पंचम या एकादश स्थान में हो तो सूली से मृत्यु होती है। दुर्घटना से मृत्यु योग 1- चतुर्थेश, षष्ठेश व अष्टमेश से सम्बन्ध हो तो मृत्यु वाहन दुर्घटना मं हो। 2- यदि अष्टम भाव में चन्द्र, मंगल, शनि हो तो मृत्यु हथियार द्वारा हो। 3- चन्द्र सूर्य मंगल शनि 8, 5 तथा 9 में हो तो मृत्यु ऊँचाई से गिरने समुद्र, तूफान या वज्रपात से हो। 4- अष्टमेश तथा अष्टम, षष्ठ तथा षष्ठेश और मंगल का इन सबसे सम्बन्ध हो तो मृत्यु शत्रु द्वारा होती है। 5- अष्टमेश एवं द्वादशेश में भाव परिवर्तन हो, इन पर मंगल की दृष्टि हो तो अकाल मौत हो। जन्म विषघटिका में होने से विष, अग्नि क्रूरजीव से मृत्यु हो। 6- जन्म लग्न से दशम भाव में सूर्य चतुर्थ भाव में मंगल हो तो मृत्यु वाहन दुर्घटना तथा सवारी से गिरने से होती है। 7- मंगल और सूर्य सप्तम भाव में, शनि अष्टम भाव में क्षीण चन्द्र के साथ हो तो पक्षी के कारण दुर्घटना में मृत्यु हो। 8- सूर्य, मंगल, केतु की यति हो जिस पर पाप ग्रहों की दृष्टि हो तो अग्नि दुर्घटना में मृत्यु हो। चन्द्र मेष$ वृश्चिक राशि में हो तो पाप ग्रह की दृष्टि से अग्नि अस्त्र से मृत्यु हो। 9- द्विस्वभाव राशि लग्न में सूर्य+चन्द्र हो तो जातक की मृत्यु जल में डूबने से हो। 10- लग्नेश और अष्टमेश कमजोर हो, मंगल षष्ठेश से युत हो तो मृत्यु युद्ध में हो। द्वादश भाव में मंगल अष्टम भाव में शनि से हथियार द्वारा हत्या हो। 11- यदि नंवाश लग्न में सप्तमेश शनि युत हो 6, 8, 12 में हो जहर खाने से मृत्यु हो । 12- चन्द्र मंगल अष्टमस्थ हो तो सर्पदंश से मृत्यु होती है। 13- लग्नेश अष्टमेश और सप्तमेश साथ बैठे हों तो जातक स्त्री के साथ मरता है। आत्म हत्या से मृत्यु योग 1- लग्न व सप्तम भाव में नीच ग्रह हों 2- लग्नेश व अष्टमेश का सम्बन्ध व्ययेश से हो। 3- अष्टमेश जल तत्व हो तो जल में डूबने से, अग्नि तत्व हो तो जलकर, वायु तत्व हो तो तूफान व बज्रपात से अपघात हो । 4- कर्क राशि का मंगल अष्टम भाव में पानी में डूबकर आत्मघात कराता है 5- यदि अष्टम भाव में एक या अधिक अशुभ ग्रह हो तो जातक हत्या, अपघात, दुर्घटना, बीमारी से मरता है। ग्रहों के अनुसार स्त्री पुरूष के आकस्मिक मृत्यु योग 1- चतुर्थ भाव में सूर्य और मंगल स्थित हों, शनि दशम भाव मं स्थित हो तो शूल से मृत्यु तुल्य कष्ट तथा अपेंडिक्स रोग से मौत हो सकती है। 2- द्वितीय स्थान में शनि, चतुर्थ स्थान में चन्द्र, दशम स्थान में मंगल हो तो घाव में सेप्टिक से मृत्यु होती है। 3- दशम स्थान में सूर्य और चतुर्थ स्थान में मंगल स्थित हो तो कार, बस, वाहन या पत्थर लगने से मृत्यु तुल्य कष्ट होता है। 4- शनि कर्क और चन्द्रमा मकर राशिगत हो तो जल से अथवा जलोदर से मृत्यु हो। 5- शनि चतुर्थस्थ, चन्द्रमा सप्तमस्थ और मंगल दशमस्थ हो तो कुएं में गिरने से मृत्यु होती है 6- क्षीण चन्द्रमा अष्टम स्थान में हो उसके साथ मं$रा$शनि हो तो पिशाचादि दोष से मृत्यु हो। 7- जातक का जन्म विष घटिका में होने से उसकी मृत्यु विष, अग्नि तथा क्रूर जीव से होती है। 8- द्वितीय में शनि, चतुर्थ में चन्द्र और दशम में मंगल हो तो मुख मं कृमिरोग से मृत्यु होती है। 9- शुभ ग्रह दशम, चतुर्थ, अष्टम, लग्न में हो और पाप ग्रह से दृष्ट हो तो बर्छी की मार से मृत्यु हो। 10- यदि मंगल नवमस्थ और शनि, सूर्य राहु एकत्र हो, शुभ ग्रह दृष्ट न हो तो बाण से मृत्यु हो 11- अष्टम भाव में चन्द्र के साथ मंगल, शनि, राहु हो तो मृत्यु मिर्गी से हो। 12- नवम भाव में बुध शुक्र हो तो हृदय रोग से मृत्यु होती है। 13- अष्टम शुक्र अशुभ ग्रह से दृष्ट हो तो मृत्यु गठिया या मधुमेह से होती है 14- स्त्री की जन्म कुण्डली सूर्य, चन्द्रमा मेष राशि या वृश्चिक राशिगत होकर पापी ग्रहों के बीच हो तो महिला शस्त्र व अग्नि से अकाल मृत्यु को प्राप्त होती है। 15- स्त्री की जन्म कुण्डली में सूर्य एवं चन्द्रमा लग्न से तृतीय, षष्ठम, नवम, द्वादश भाव में स्थित हो तो तथा पाप ग्रहों की युति व दृष्टि हो तो महिला फंासी लगाकर या जल में कूद कर आत्म हत्या करती है। 16- द्वितीय भाव में राहु, सप्तम भाव में मंगल हो तो महिला की विषाक्त भोजन से मृत्यु हो 17- सूर्य एवं मंगल चतुर्थ भाव अथवा दशम भाव में स्थित हो तो स्त्री पहाड़ से गिर कर मृत्यु को प्राप्त होती है। 18- दशमेश शनि की व्ययेश एवं सप्तमेश मंगल पर पूर्ण दृष्टि से महिला की डिप्रेशन से मृत्यु हो। 19- पंचमेश नीच राशिगत होकर शत्रु ग्रह शुक्र एवं शनि से दृष्ट हो तो प्रसव के समय मृत्यु हो । 20- महिला की जन्मकुण्डली में मंगल द्वितीय भाव में हो, चन्द्रमा सप्तम भाव में हो, शनि चतुर्थ भाव में हो तो स्त्री कुएं, बाबड़ी, तालाब में कूद कर मृत्यु को प्राप्त होती है। लग्नेश के नवांश से मृत्यु, रोग अनुमान 1- मेष नवांश हो तो ज्वर, ताप जठराग्नि तथा पित्तदोष से मृत्यु हो 2- वृष नवांश हो तो दमा, शूल त्रिदोषादि, ऐपेंडिसाइटिस से मृत्यु हो। 3- मिथुन नवांश हो तो सिर वेदना, 4- कर्क नवांश वात रोग व उन्माद से मृत्यु हो। 5- सिंह नवांश हो तो विस्फोटकादि, घाव, विष, शस्त्राघात और ज्वर से मृत्यु। 6- कन्या नवांश हो तो गुह्य रोग, जठराग्नि विकार से मृत्यु हो। 7- तुला नवांश में शोक, बुद्धि दोष, चतुष्पद के आघात से मृत्यु हो। 8- वृश्चिक नवांश में पत्थर अथवा शस्त्र चोट, पाण्डु ग्रहणी वेग से। 9- धनु नवांश में गठिया, विष शस्त्राघात से मृत्यु हो। 10- मकर नवांश में व्याघ्र, शेर, पशुओं से घात, शूल, अरुचि रोग से मृत्यु। 11- कुंभ नवांश में स्त्री से विष पान श्वांस तथा ज्वर से मृत्यु हो। 12- मीन नवांश में जल से तथा संग्रहणी रोग से मृत्यु हो। गुलिक से मृत्युकारी रोग अनुमान 1- गुलिक नवांश से सप्तम शुभग्रह हो तो मृत्यु सुखकारी होगी। 2- गुलिक नवांश से सप्तम स्थान में मंगल हो तो जातक की युद्ध लड़ाई में मृत्यु होगी। 3- गुलिक नवांश से सप्तम स्थान में शनि हो तो मृत्यु चोर, दानव, सर्पदंश से होगी। 4- गुलिक नवांश से सप्तम स्थान में सूर्य हो तो राजकीय तथा जलजीवांे से मृत्यु। अरिष्ट महादशा व दशान्तर में मृत्यु 1- अष्टमेश भाव 6, 8, 12 मं हो तो अष्टमेश की दशा-अन्तर्दशा में और दशमेश के बाद के ग्रह अन्तर्दशा में मृत्यु होती है। 2- कर्क, वृश्चिक, मीन के अन्तिम भाग ऋक्ष संधि कहलाते हैं। ऋक्ष सन्धि ग्रह की दशा मृत्युकारी होती है। 3- जिस महादशा में जन्म हो महादशा से तीसरा, पांचवां, सातवें भाव की महादशा यदि नीच, अस्त, तथा शत्रु ग्रह की हो तो मृत्यु होती है। 4- द्वादशेश की महादशा में द्वितीयेश का अन्तर आता है अथवा द्वितीयेश दशा में द्वादश अन्तर में अनिष्टकारी मृत्यु तुल्य होता है। 5- छिद्र ग्रह सात होते हैं 1. अष्टमेश, 2. अष्टमस्थ ग्रह, 3. अष्टमदर्शी ग्रह, 4. लग्न से 22 वां द्रेष्काण अर्थात अष्टम स्थान का द्रेष्काण जिसे रवर कहते हैं उस द्रेष्काण स्वामी, 5. अष्टमेश के साथ वाला ग्रह, 6. चन्द्र नवांश से 64 वां नवांशपति, 7. अष्टमेश का अतिशत्रु ग्रह। इन सात में से सबसे बली ग्रह की महादशा कष्टदायक व मृत्युकारी होगी। 1. आकस्मिक मृत्यु के बचाव के लिए महामृत्युंजय मंत्र का जप करें। जप रुद्राक्ष माला से पूर्वी मुख होकर करें। 2. वाहन चलाते समय मादक वस्तुओं का सेवन न करें तथा अभक्ष्य वस्तुओं का सेवन न करें अन्यथा पिशाची बाधा हावी होगी वैदिक गायत्री मंत्र कैसेट चालू रखें। 3. गोचर कनिष्ठ ग्रहों की दशा में वाहन तेजी से न चलायें। 4. मंगल का वाहन दुर्घटना यंत्र वाहन में लगायें, उसकी विधिवत पूजा करें। 5. नवग्रह यंत्र का विधिविधान पूर्वक प्रतिष्ठा कर देव स्थान में पूजा करें। 6. सूर्य कलाक्षीण हो तो आदित्य हृदय स्तोत्र, चन्द्र की कला क्षीण हो तो चन्द्रशेखर स्तोत्र, मंगल की कला क्षीण हो तो हनुमान स्तोत्र, शनि कला क्षीण हो तो दशरथकृत शनि स्तोत्र का पाठ करें। राहु की कला क्षीण हो तो भैरवाष्टक व गणेश स्तोत्र का पाठ करें। गणित पद्धति से अरिष्ट दिन मृत्यु समय के लग्न, अरिष्ट मास का ज्ञान अरिष्ट मास: 1- लग्न स्फूट और मांदी स्फुट को जोड़कर जो राशि एवं नवांश हो उस राशि के उसी नवांश पर जब गोचर में सूर्य आता है तब जातक की मृत्यु होती है। 2- लग्नेश के साथ जितने ग्रह हां उन ग्रहों की महादशा वर्ष जोड़कर 12 का भाग दें। जो शेष बचे उसी संख्यानुसार सौर मास में अरिष्ट होगा। अरिष्ट दिन: 1- मांदी स्फुट और चन्द्र स्फुट को जोड़कर 18 से गुणन करें उसमें शनि स्फुट को जोड़कर 9 से गुणन कर जोड़ दें। जब गोचर चन्द्र उस राशि के नवांश में जाता है तो उस दिन अरिष्ट दिन होगा। मृत्यु समय लग्न का ज्ञान: 2- लग्न स्फुट मांदी स्फुट और चन्द्र स्फुट को जोड़ देने से जो राशि आये उसी राशि के उदय होने पर जातक की मृत्यु होती है। अकस्मात मृत्यु से बचाव हेतु उपाय: सर्व प्रथम जातक की कुण्डली का सूक्ष्म अवलोकन करने के पश्चात निर्णय लें कि किस ग्रह के कारण अकस्मात मृत्यु का योग निर्मित हो रहा है। उस ग्रह का पूर्ण विधि-विधान से जप, अनुष्ठान, यज्ञ, दानादि करके इस योग से बचा जा सकता है। बृहत पराशर होरा शास्त्रम् के अनुसार: ‘‘सूर्यादि ग्रहों के अधीन ही इस संसार के प्राणियों का समस्त सुख व दुःख है। इसलिए शांति, लक्ष्मी, शोभा, वृष्टि, आयु, पुष्टि आदि शुभफलों की कामना हेतु सदैव नव ग्रहों का यज्ञादि करना चाहिए।’’ मूर्ति हेतु धातु: ग्रहों की पूजा हेतु सूर्य की प्रतिमा ताँबें से, चन्द्र की स्फटिक से, मंगल की लाल चन्दन से, बुध व गुरु की स्वर्ण से, शुक्र चांदी से, शनि की लोहे से , राहु की सीसे से व केतु की कांसे से प्रतिमा बनानी चाहिए। अथवा पूर्वोक्त ग्रहों के रंग वाले रेशमी वस्त्र पर उनकी प्रतिमा बनानी चाहिए। यदि इसमें भी सामथ्र्य न हो तो जिस ग्रह की जो दिशा है उसी दिशा में गन्ध से मण्डल लिखना चहिए। विधान पूर्वक उस ग्रह की पूजा करनी चाहिए, मंत्र जप करना चाहिए। ग्रहों के रंग के अनुसार पुष्प, वस्त्र इत्यादि लेना चाहिए। जिस ग्रह का जो अन्न व वस्तु हो उसे दानादि करना चाहिए। ग्रहों के अनुसार समिधाएं लेकर ही हवनादि करना चाहिए। ग्रहों के अनुसार ही भक्ष्य पदार्थ सेवन करने व कराने चाहिए। जिस जातक की कुण्डली में ग्रह अशुभ फल देते हों, खराब हों, निर्बल हों, अनिष्ट स्थान में हों, नीचादिगत हो उस ग्रह की पूजा विधि-विधान से करना चाहिए। इन ग्रहों को ब्रह्माजी ने वरदान दिया है कि इन्हें जो पूजेगा ये उसे पूजित व सम्मानित बनाएंगे। ग्रह-पीड़ा निवारण प्रयोग (दत्तात्रेय तंत्र के अनुसार): एक मिट्टी के बर्तन में मदार की जड़ (आक की जड़), धतूरा, चिर-चिरा, दूब, बट, पीपल की जड़, शमीर, शीशम, आम, गूलर के पत्ते, गो-घृत, गो दुग्ध, चावल, चना, गेहँ, तिल, शहद और छाछ भर कर शनिवार के दिन सन्ध्याकाल में पीपल वृक्ष की जड़ में गाड़ देने से समस्त ग्रहों की पीड़ा व अरिष्टों का नाश होता है। मंत्र: ऊँ नमो भास्कराय अमुकस्य अमुकस्य मम सर्व ग्रहाणां पीड़ानाशनं कुरु कुरु स्वाहा। इस मंत्र का घट गाड़ते समय 21 बार उच्चारण करें व नित्य 11 बार प्रातः शाम जप करें । इसके अतिरिक्त महामृत्युंजय का जाप व अनुष्ठान की अकस्मात मृत्यु योग को टालने में सार्थक है। इसके भी विभिन्न मंत्र इस प्रकार हैं एकाक्षरी ‘‘हौं’’ त्राक्षरी ‘‘ऊँ जूँ सः’’ चतुरक्षरी ‘‘ऊँ वं जूं सः’’ नवाक्षरी ‘‘ऊँ जं सः पालय पालय’’ दशाक्षरी ‘‘ऊँ जूं सः मां पालय पालय’’ पंचदशाक्षरी ‘‘ऊँ जं सः मां पालय पालय सः जं ऊँ’’ वैदिक-त्रम्बक मृत्युंजय मंत्र ‘‘त्रम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्।।’’ मृत्युंजय मंत्र ‘‘ऊँ भूः ऊँ स्वः ऊँ त्रम्बकं यजामहे.................माऽमृतात् ऊँ स्वः ऊँ भुवः ऊँ भूः ऊँ।’’ मृत संजीवनी मंत्र ‘‘ऊँ हौं जूं सः ऊँ भूर्भुव स्वः ऊँ त्रम्बकं यजामहे....... माऽमृतात् ऊँ स्वः ऊँ भुवः भूः ऊँ सः जूं हौं ऊँ।। उपरोक्त उपायों को बुद्धिमत्ता पूर्वक विधि-विधान से किए जायें तो यह उपाय अकस्मात मृत्यु को टालने में सार्थक हो सकते हैं।

Monday, February 13, 2017

Prajapati History

History of Prajapati Samaj (प्रजापति समुदाय का इतिहास)

आप सभी लोग जानते होंगे कि हम सभी किस वंश से सम्बंध रखते है अगर नही भी तो सुनये हम सभी ब्रहमा के पुत्र दक्ष प्रजापति के वंशज है ये पुराणों मे लिखा हुआ है।दक्ष प्रजापति यजुर वैद के बहुत अच्छे विदवान थे। एक दिन ब्रहमा जी ने खुश होकर उन्हें प्रतिष्ति पद दे दिया।उन्हे इस पर बहुत गर्व हुआ और एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया। सभी ऋषि मुनियों और देवताओ को आमंत्रण दे दिया गया। सभी ऋषि मुनी और देवता महा यज्ञ में पद्धारे और उन्होने अपना अपना स्थान ग्रहन किया। जेसे ही राजा दक्ष मंडप में पधारे सभी ने खड़े होकर उनका आदर सतकार किया लेकिन ब्रहमा जी और शिव जी अपने स्थान पर बैठे रहे। ये बात दक्ष प्रजापति को अच्छी नही लगी और उन्होंने कहा कि शिव जी मेरे दामाद हे उन्होने मेरा आदर नही किया और इसलिए उन्हें इस महा यज्ञ में भाग लेने का अधिकार नही है। शिव जी ये सब शांत भाव से सुन रहे थे लेकिन नंन्दी को ये बात बिलकुल भी अच्छी नही लगी और उसने कहा हे दक्ष तुम्हे अपनी पदवी पर गर्व है तुम भगवान शिव को केवल अपना दामाद न समझों बलकि तुमने तो ये बात कह कर उनका अनादर किया है। इसलिए मै तुम्हे शाप देता हू तुम्हारा समस्त वंश कलयुग मे ब्रहमण के नाम से नही जाना जाएगा। तुम्हारा वंश गैर ब्रहमण से जाना जाएगा।नन्दी के शाप के कारण तभी से प्रजापति जाति निचे गिरती चली जा रही है।ब्रहमण समाज विरासत से ही प्रतिष्ठित समाज रहा है और हमारा समाज हम जानते है पिछड़ता जा रहा है।इन सभी बातों का उल्लेख भागवत गीता और पुराणों मे भी किया गया है।
प्रााचीन काल में आर्य जाति व समाज को चार भागों में बाटा गया था।
1.ब्रहम्ण
2.क्षतरीय
3.वैश्या
4.शुद्र
शुद्र जाति के लोग भी ब्रहम्ण् हो सकते है। वाल्मिकि ऋृषि जन्म से शुद्र जाति से सम्बंधित थे बाद मे वो ब्रहम्ण हो गए। वर्तमान जाति और प्रजातियां अपनी कुशलताओं के आधार पर बनी है।
प्रााचीन काल में प्रजापति समाज बहुत बड़े दरजे पर था उस समय उच्ची जातियों के लोग प्रजातियों के घरों मे ठहरते थे। दवापर युग में पाण्डव भी प्रजापति के घर में ठहरे थे।प्रजापति समुदाय की संस्कृति साफ ओैर सवच रही है। लम्वे समय से इस समुदाय का पतन या ये कहें कि प्रजापति समाज पिछड़ता जा रहा है।
केवल ब्रहमा जी है जो मानवता को बनाने के लिए पांच तत्वों का प्रयोग करते है जैसे- वायु़ ,जल, मिटटी, आकाश और आग। ब्रहमा जी के बेटे दक्ष प्रजापति भी इन्ही पांच तत्वो का इस्तेमाल करके बर्तनों मे कलाकारी करते है।इन सभी वस्तुऔ का उपयोग मुख्यत सभी लोगो के द्वारा किया जाता है।लोग इनका उपयोग खाने में, पीने में, रहने में और पुजा मे करते है।अमीर हो या गरीब ये वस्तुए सभी लोग इस्तेमाल करते है।
वर्तमान समय में मिट्टीके बर्तनों के काम मे कमी आयी है क्योंकि मिटटी के बर्तनो की जगह पर लोहे तांबा और स्टील के बर्तनों की मांग बढ़ने लगी है।बहुत से ऐसे कारण है जिनके कारण प्रजापति समुदाय के लोग पिछड़ रहे है। एक मुख्य कारण शिक्षा में कमी शिक्षा में कमी के कारण हमारी गतिशीलता मे वृद्धी सीमित हो जाती है।दुसरा ये कि प्रजापति समुदाय के लोग दुसरों पर निर्भर है।
लेकिन धीरे -धीरे समय बदल रहा है प्रजापति समुदाय के लोग शिक्षा के लिए आगे आ रहे है कुछ लोग विदेश भी जा रहे है और कुछ दुसरे समाज के लोगो के साथ मिलकर आगे बढ़ रहे है। धीरे -धीरे जो बैठने और खाने की बाधा थी वो खत्म होती जा रही है।

कुम्हार


अपनी कृतियों के साथ एक कुम्हार

कुम्हार जाति सपूर्ण भारत मे हिन्दू व मुस्लिम धर्म सम्प्रदायो मे पायी जाती है।
[1] क्षेत्रीय व उप-सम्प्रदायो के आधार पर कुम्हारों को अन्य पिछड़ा वर्ग[2] तथा अनुसूचित जाति[3][2] के रूप मे वर्गीकृत किया गया है। [4][5]साथ ही, वर्तमान मे भारतीय संसद मे यह प्रस्ताव प्रगति पर है जिसके आधार पर कुम्हारों को बिहार प्रांत मे अनुसूचित जाति व ओड़ीसा मे अनुसूचित जन जाति की मान्यता देना प्रस्तावित nahi है।[6]मिट्टी के बर्तन बनाने वाले को कुम्हार कहते हैं।[1]

शाब्दिक अर्थ

कुम्हार शब्द का जन्म संस्कृत भाषा के "कुंभकTर" शब्द से हुआ है, जिसका अर्थ है-"मिट्टी के बर्तन बनाने वाला"। [7] द्रविढ़ भाषाओ मे भी कुंभकार शब्द का यही अर्थ है। "भांडे" शब्द का प्रयोग भी कुम्हार जाति के सम्बोधन हेतु किया जाता है, जो की कुम्हार शब्द का समानार्थी है। भांडे का शाब्दिक अर्थ है-बर्तन। अमृतसर के कुम्हारों को "कुलाल" या "कलाल" कहा जाता है , यह शब्द यजुर्वेद मे कुम्हार वर्ग के लिए प्रयुक्त हुये है।[1]

उत्पत्ति की काल्पनिक कथा

वैदिक भगवान प्रजापति के नाम का उपयोग करते हुये हिन्दू कुम्हारों का एक वर्ग खुद को प्रजापति कहता है। कहते है की भगवान प्रजापति ने ही सम्पूर्ण ब्रह्मांड की रचना की थी। [1]
कुम्हारों मे प्रचलित एक दंतकथा के अनुसार
एक बार ब्रह्मा जी ने अपने पुत्रों को गन्ने वितरित किए। सभी पुत्रों ने अपने हिस्से का गन्ना खा लिए, किन्तु अपने कार्य मे व्यस्त होने के कारण कुम्हार ने मिट्टी के ढेर के पास गन्ने को रख दिया जो कि मिट्टी के संपर्क मे होने के कारण पौधे के रूप मे विकसित हो गया। कुछ दिन बाद जब ब्रह्मा जी ने अपने पुत्रों से गन्ने मांगे तो कोई नही गन्ने लौटा नही सका, परंतु कुम्हार ने ब्रह्मा जी को पूरा गन्ने का पौधा भेंट कर दिया। कुम्हार के काम के प्रति निष्ठा देख ब्रह्मा जी ने उसे प्रजापति नाम से पुरस्कृत किया।[1]

परंतु कुछ लोगो का मत है कि कुम्हारों के पारंपरिक मिट्टी से बर्तन बनाने की रचनात्मक कला को सम्मान देने हेतु उन्हे प्रजापति कहा गया।[8]

वर्गीकरण

कुम्हारों को मुख्यतया हिन्दू व मुस्लिम सांस्कृतिक समुदायो मे वर्गीकृत किया गया है।[1] हिन्दुओ मे कुम्हारों को निसंदेह kshatriya वर्ग मे रखा गया है. साथ ही कुम्हारों को दो वर्गो- शुद्ध कुम्हार(more than 96%) व अशुद्ध कुम्हार वर्गो मे विभाजित किया जाता है।[9]
कुम्हारों के कई समूह है, जैसे कि - गुजराती कुम्हार, राणा कुम्हार, लाद, तेलंगी इत्यादि। यह विभिन्न नाम भाषा या सांस्कृतिक क्षेत्रो पर आधारित नाम है ओर इन सभी को सम्मिलित रूप से कुम्हार जाति कहा जाता है।[10]

भारत मे व्याप्ति

चम्बा (हिमाचल)

चम्बा के कुम्हार घड़े, सुराही, बर्तन, अनाज संग्राहक, मनोरंजन के लिए खिलौने इत्यादि बनाने मे निपुण होते है। कुछ बर्तनो पर चित्रण कार्य भी किया जाता है।[8]

महराष्ट्र

सतारा, कोल्हापुर, सांगली, शोलापुर तथा पुणे क्षेत्रो मे कुम्हार पाये जाते है। वे आपस मे मराठी भाषा बोलते है परन्तु बाहरी लोगो से मराठी ओर हिन्दी दोनों भाषाओ मे बात करते हैं। पत्र व्यवहार मे वे देवनागरी लिपि का प्रयोग करते है।[2] यहाँ कुछ गैर मराठी कुम्हार भी है जो मूर्तिया ओर बर्तन बनात है।[1]कुम्हार हिन्दू वर्ण व्यवस्था मे विश्वास करते है ओर खुद को kshatriya वर्ण मे मानते है।[2]

मध्य प्रदेश

यहा हथरेटी ओर चकारेटी कुम्हार पाये जाते है। बर्तन बनाने के लिए चाक को हाथ से घुमाने के कारण इन्हे हथरेटी कहा जाता है। कुम्हारों को गोला भी कहते है।[11] कुम्हार जाति(not original kumhar/Prajapati) प्रदेश के छतरपुर, दतिया, टीकमगढ़, पन्ना, सतना, सीधी व शहडोल जिलों मे अनुसूचित जाति में शामिल है व शेष इलाकों मे अन्य पिछड़े वर्ग में(more than 45 distts.)।[12]

राजस्थान

राजस्थान मे कुम्हारों (प्रजापतियों) के 6 उप समूह है-माथेरा, कुमावत, खेतेरी, मरवारा, तिमरिया, और मावलिया। संजाइक वर्ण क्रम मे इनका स्थान उच्च जातियो व हरिजनो के मध्य का है। वे जातिगत अंतर्विवाही व गोत्र वाहिर्विवाही होते है।[7]

उत्तर प्रदेश व बिहार

उत्तर प्रदेश व बिहार मे जाति वर्गिकरण समान है। समाज मे कनौजिया कुम्हारों का सम्मान होता है तथा उन्हे पंडित कहा जाता है, किन्तु वे असली ब्राह्मणो से भिन्न है। माघीय कुम्हारों को कनौजिया कुम्हारों से नीचा माना जाता है तथा तुकरना या गधेरे कुम्हारों को अछूत वर्ग मे सम्मिलित nahi किया जाता है।[13]