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Monday, February 13, 2017

Prajapati History

History of Prajapati Samaj (प्रजापति समुदाय का इतिहास)

आप सभी लोग जानते होंगे कि हम सभी किस वंश से सम्बंध रखते है अगर नही भी तो सुनये हम सभी ब्रहमा के पुत्र दक्ष प्रजापति के वंशज है ये पुराणों मे लिखा हुआ है।दक्ष प्रजापति यजुर वैद के बहुत अच्छे विदवान थे। एक दिन ब्रहमा जी ने खुश होकर उन्हें प्रतिष्ति पद दे दिया।उन्हे इस पर बहुत गर्व हुआ और एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया। सभी ऋषि मुनियों और देवताओ को आमंत्रण दे दिया गया। सभी ऋषि मुनी और देवता महा यज्ञ में पद्धारे और उन्होने अपना अपना स्थान ग्रहन किया। जेसे ही राजा दक्ष मंडप में पधारे सभी ने खड़े होकर उनका आदर सतकार किया लेकिन ब्रहमा जी और शिव जी अपने स्थान पर बैठे रहे। ये बात दक्ष प्रजापति को अच्छी नही लगी और उन्होंने कहा कि शिव जी मेरे दामाद हे उन्होने मेरा आदर नही किया और इसलिए उन्हें इस महा यज्ञ में भाग लेने का अधिकार नही है। शिव जी ये सब शांत भाव से सुन रहे थे लेकिन नंन्दी को ये बात बिलकुल भी अच्छी नही लगी और उसने कहा हे दक्ष तुम्हे अपनी पदवी पर गर्व है तुम भगवान शिव को केवल अपना दामाद न समझों बलकि तुमने तो ये बात कह कर उनका अनादर किया है। इसलिए मै तुम्हे शाप देता हू तुम्हारा समस्त वंश कलयुग मे ब्रहमण के नाम से नही जाना जाएगा। तुम्हारा वंश गैर ब्रहमण से जाना जाएगा।नन्दी के शाप के कारण तभी से प्रजापति जाति निचे गिरती चली जा रही है।ब्रहमण समाज विरासत से ही प्रतिष्ठित समाज रहा है और हमारा समाज हम जानते है पिछड़ता जा रहा है।इन सभी बातों का उल्लेख भागवत गीता और पुराणों मे भी किया गया है।
प्रााचीन काल में आर्य जाति व समाज को चार भागों में बाटा गया था।
1.ब्रहम्ण
2.क्षतरीय
3.वैश्या
4.शुद्र
शुद्र जाति के लोग भी ब्रहम्ण् हो सकते है। वाल्मिकि ऋृषि जन्म से शुद्र जाति से सम्बंधित थे बाद मे वो ब्रहम्ण हो गए। वर्तमान जाति और प्रजातियां अपनी कुशलताओं के आधार पर बनी है।
प्रााचीन काल में प्रजापति समाज बहुत बड़े दरजे पर था उस समय उच्ची जातियों के लोग प्रजातियों के घरों मे ठहरते थे। दवापर युग में पाण्डव भी प्रजापति के घर में ठहरे थे।प्रजापति समुदाय की संस्कृति साफ ओैर सवच रही है। लम्वे समय से इस समुदाय का पतन या ये कहें कि प्रजापति समाज पिछड़ता जा रहा है।
केवल ब्रहमा जी है जो मानवता को बनाने के लिए पांच तत्वों का प्रयोग करते है जैसे- वायु़ ,जल, मिटटी, आकाश और आग। ब्रहमा जी के बेटे दक्ष प्रजापति भी इन्ही पांच तत्वो का इस्तेमाल करके बर्तनों मे कलाकारी करते है।इन सभी वस्तुऔ का उपयोग मुख्यत सभी लोगो के द्वारा किया जाता है।लोग इनका उपयोग खाने में, पीने में, रहने में और पुजा मे करते है।अमीर हो या गरीब ये वस्तुए सभी लोग इस्तेमाल करते है।
वर्तमान समय में मिट्टीके बर्तनों के काम मे कमी आयी है क्योंकि मिटटी के बर्तनो की जगह पर लोहे तांबा और स्टील के बर्तनों की मांग बढ़ने लगी है।बहुत से ऐसे कारण है जिनके कारण प्रजापति समुदाय के लोग पिछड़ रहे है। एक मुख्य कारण शिक्षा में कमी शिक्षा में कमी के कारण हमारी गतिशीलता मे वृद्धी सीमित हो जाती है।दुसरा ये कि प्रजापति समुदाय के लोग दुसरों पर निर्भर है।
लेकिन धीरे -धीरे समय बदल रहा है प्रजापति समुदाय के लोग शिक्षा के लिए आगे आ रहे है कुछ लोग विदेश भी जा रहे है और कुछ दुसरे समाज के लोगो के साथ मिलकर आगे बढ़ रहे है। धीरे -धीरे जो बैठने और खाने की बाधा थी वो खत्म होती जा रही है।

कुम्हार


अपनी कृतियों के साथ एक कुम्हार

कुम्हार जाति सपूर्ण भारत मे हिन्दू व मुस्लिम धर्म सम्प्रदायो मे पायी जाती है।
[1] क्षेत्रीय व उप-सम्प्रदायो के आधार पर कुम्हारों को अन्य पिछड़ा वर्ग[2] तथा अनुसूचित जाति[3][2] के रूप मे वर्गीकृत किया गया है। [4][5]साथ ही, वर्तमान मे भारतीय संसद मे यह प्रस्ताव प्रगति पर है जिसके आधार पर कुम्हारों को बिहार प्रांत मे अनुसूचित जाति व ओड़ीसा मे अनुसूचित जन जाति की मान्यता देना प्रस्तावित nahi है।[6]मिट्टी के बर्तन बनाने वाले को कुम्हार कहते हैं।[1]

शाब्दिक अर्थ

कुम्हार शब्द का जन्म संस्कृत भाषा के "कुंभकTर" शब्द से हुआ है, जिसका अर्थ है-"मिट्टी के बर्तन बनाने वाला"। [7] द्रविढ़ भाषाओ मे भी कुंभकार शब्द का यही अर्थ है। "भांडे" शब्द का प्रयोग भी कुम्हार जाति के सम्बोधन हेतु किया जाता है, जो की कुम्हार शब्द का समानार्थी है। भांडे का शाब्दिक अर्थ है-बर्तन। अमृतसर के कुम्हारों को "कुलाल" या "कलाल" कहा जाता है , यह शब्द यजुर्वेद मे कुम्हार वर्ग के लिए प्रयुक्त हुये है।[1]

उत्पत्ति की काल्पनिक कथा

वैदिक भगवान प्रजापति के नाम का उपयोग करते हुये हिन्दू कुम्हारों का एक वर्ग खुद को प्रजापति कहता है। कहते है की भगवान प्रजापति ने ही सम्पूर्ण ब्रह्मांड की रचना की थी। [1]
कुम्हारों मे प्रचलित एक दंतकथा के अनुसार
एक बार ब्रह्मा जी ने अपने पुत्रों को गन्ने वितरित किए। सभी पुत्रों ने अपने हिस्से का गन्ना खा लिए, किन्तु अपने कार्य मे व्यस्त होने के कारण कुम्हार ने मिट्टी के ढेर के पास गन्ने को रख दिया जो कि मिट्टी के संपर्क मे होने के कारण पौधे के रूप मे विकसित हो गया। कुछ दिन बाद जब ब्रह्मा जी ने अपने पुत्रों से गन्ने मांगे तो कोई नही गन्ने लौटा नही सका, परंतु कुम्हार ने ब्रह्मा जी को पूरा गन्ने का पौधा भेंट कर दिया। कुम्हार के काम के प्रति निष्ठा देख ब्रह्मा जी ने उसे प्रजापति नाम से पुरस्कृत किया।[1]

परंतु कुछ लोगो का मत है कि कुम्हारों के पारंपरिक मिट्टी से बर्तन बनाने की रचनात्मक कला को सम्मान देने हेतु उन्हे प्रजापति कहा गया।[8]

वर्गीकरण

कुम्हारों को मुख्यतया हिन्दू व मुस्लिम सांस्कृतिक समुदायो मे वर्गीकृत किया गया है।[1] हिन्दुओ मे कुम्हारों को निसंदेह kshatriya वर्ग मे रखा गया है. साथ ही कुम्हारों को दो वर्गो- शुद्ध कुम्हार(more than 96%) व अशुद्ध कुम्हार वर्गो मे विभाजित किया जाता है।[9]
कुम्हारों के कई समूह है, जैसे कि - गुजराती कुम्हार, राणा कुम्हार, लाद, तेलंगी इत्यादि। यह विभिन्न नाम भाषा या सांस्कृतिक क्षेत्रो पर आधारित नाम है ओर इन सभी को सम्मिलित रूप से कुम्हार जाति कहा जाता है।[10]

भारत मे व्याप्ति

चम्बा (हिमाचल)

चम्बा के कुम्हार घड़े, सुराही, बर्तन, अनाज संग्राहक, मनोरंजन के लिए खिलौने इत्यादि बनाने मे निपुण होते है। कुछ बर्तनो पर चित्रण कार्य भी किया जाता है।[8]

महराष्ट्र

सतारा, कोल्हापुर, सांगली, शोलापुर तथा पुणे क्षेत्रो मे कुम्हार पाये जाते है। वे आपस मे मराठी भाषा बोलते है परन्तु बाहरी लोगो से मराठी ओर हिन्दी दोनों भाषाओ मे बात करते हैं। पत्र व्यवहार मे वे देवनागरी लिपि का प्रयोग करते है।[2] यहाँ कुछ गैर मराठी कुम्हार भी है जो मूर्तिया ओर बर्तन बनात है।[1]कुम्हार हिन्दू वर्ण व्यवस्था मे विश्वास करते है ओर खुद को kshatriya वर्ण मे मानते है।[2]

मध्य प्रदेश

यहा हथरेटी ओर चकारेटी कुम्हार पाये जाते है। बर्तन बनाने के लिए चाक को हाथ से घुमाने के कारण इन्हे हथरेटी कहा जाता है। कुम्हारों को गोला भी कहते है।[11] कुम्हार जाति(not original kumhar/Prajapati) प्रदेश के छतरपुर, दतिया, टीकमगढ़, पन्ना, सतना, सीधी व शहडोल जिलों मे अनुसूचित जाति में शामिल है व शेष इलाकों मे अन्य पिछड़े वर्ग में(more than 45 distts.)।[12]

राजस्थान

राजस्थान मे कुम्हारों (प्रजापतियों) के 6 उप समूह है-माथेरा, कुमावत, खेतेरी, मरवारा, तिमरिया, और मावलिया। संजाइक वर्ण क्रम मे इनका स्थान उच्च जातियो व हरिजनो के मध्य का है। वे जातिगत अंतर्विवाही व गोत्र वाहिर्विवाही होते है।[7]

उत्तर प्रदेश व बिहार

उत्तर प्रदेश व बिहार मे जाति वर्गिकरण समान है। समाज मे कनौजिया कुम्हारों का सम्मान होता है तथा उन्हे पंडित कहा जाता है, किन्तु वे असली ब्राह्मणो से भिन्न है। माघीय कुम्हारों को कनौजिया कुम्हारों से नीचा माना जाता है तथा तुकरना या गधेरे कुम्हारों को अछूत वर्ग मे सम्मिलित nahi किया जाता है।[13]

1 comment:

  1. कुमावत और कुम्हार दो अलग अलग समाज हैं

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